बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

नकली खोया ऐसे ही खपता रहेगा..

जब तक लोग खुद जागरूक नहीं होंगे ..नकली खोया ऐसे ही खपता रहेगा, तंबाकू वाले मंजन धडा़धड बिकते रहेंगे, लोग बाज नहीं आते, किसी की नहीं सुनते, चीनी पटाखे-फुटझड़ियां भी बिकेंगी, चीना मांझा चाहे जितने गले काट दे चलता रहेगा...हम नहीं सुधरेंगे।

जैसे जैसे हम उम्र में बड़े हो रहे थे हमें कभी कभी पता चलता था कि फलां फलां बंदा या कोई महिला घर के बाहर जाकर कुछ भी नहीं खाते..इधर यू.पी में तो कुछ ज़्यादा ही देखा इस तरह का परहेज एक विशेष तबके के लोगों में ....बाहर से कुछ नहीं खाएंगे ..सफर में भी नहीं, लईया-चना, सत्तू, फल-फ्रूट या कुछ भी घर से लेकर चलेंगे, लेकिन बाहर से कुछ भी लेकर खाना इन्हें गवारा नहीं है....मैं जानता हूं कि यह सब केवल सेहत की सुरक्षा के लिए ही नहीं होता रहा है ....इस के पीछे कुछ और कारण भी हैं जैसे कि कुछ लोग आज के जमाने में भी इस बार का ध्यान रखते हैं कि बाहर का खाना किस ने बताया होगा ...कुछ पता नहीं!

मुझे कुछ साल पहले तक तो शायद यह एक सनक ही लगती थी कि बाहर से कुछ भी नहीं खाएंगे ..ऐसा कैसे हो सकता है! लेकिन जैसे जैसे अपने ऊपर बीतती गई यह बात पते की है यह पता चलता रहा। जब भी बाहर खाया, अपनी तबीयत खराब की.......यह सिलसिला अभी भी जारी है ..शायद पांच सितारा होटलों को छोड़ कर ...लेकिन वहां हम लोग खाते ही कितना है!
बहरहाल, अब मेरा यह मानना है कि जो भी लोग घर से बाहर खाने में जितना हो सके बच के रह सकते हैं वे बहुत बुद्धिमान हैं...उन के ऐसा न करने के कारण कुछ भी हो सकते हैं...शायद पुरानी रूढियों और भ्रांतियों से प्रेरित......लेेकिन मैं तो बस यहां सेहत की सुरक्षा के नजरिये से बात कर रहा हूं..

आज अभी सुबह की अखबार उठाई तो पता चला कि यहां यूपी के काकोरी में (लखऩऊ के पास ही है यह जगह ..काकोरी कांड को तो आप जानते ही होंगे) ..कुछ लोगों को घटिया मिल्क पाउडर से खोया बनाते गिरफ्तार किया गया...मौके से १८ कुंतल नकली खोया जब्त कर दिया गया।

मुखबिर से सूचना मिली थी कि घटिया स्किम्ड मिल्क पाउडर में स्टार्च मिलाया जाता था, इसके बाद पामोलीन ऑयल, चीनी मिलाई जाती थी, शुद्ध खोये की रंगत देने के लिए आरोपी पीला रंग मिला देते थे। यह सब कुछ मौके से बरामद भी किया गया...


छोटी दुकानें, गांव-कसबों के खोमचों में ही यह सब नहीं खपेगा...लखनऊ जैसे महानगरों की बड़ी हाई-जैंट्री दुकानें भी कहां अछूती हैं इन सब से ...इन की करतूतों के कच्चे चिट्ठे भी मीडिया दुनिया के सामने खोलता ही रहता है ...

आप भी ज़रा सोचिए कि आप जिस भी राज्य या शहर में रहते हों, आप ने नकली खोये की बातें ज़रूर सुनी होंगी....पहले जब हम लोग पंजाब हरियाणा में थे तो सुनते थे कि मुजफ्फरनगर नकली खोये का हब है ...यकीन कर लेते थे  ..पकड़ा भी जाता है बहुत बार ..लेकिन इस के कुछ नहीं होता ...इस तरह के कारोबारीयों के तार ऊपर तक जुड़े होते हैं ...व्हिसल ब्लोउर को ही एक इशारे पर खत्म करवा दें अगर चाहें तो ...और वह हर जगह अकेला!

कानून बड़े सख्त हो गये हैं मिलावटी सामान से संबंधित .....लेकिन आप ने कब सुना कि फलां फलां बंदा नकली खोया बेचने या सिंथेटिक दूध बेचने के इल्जाम में जेल में सड़ रहा है ....मुझे नहीं याद कि मैंने कभी सुना हो !

वैसे एक बात है  कि इन मिलावटखोरो को सजा बड़ी दर्दनाक मिलनी चाहिए...लोगो ं की सेहत से इतना बड़ा खिलवाड़...अब अगर कुछ भी ऐसा वैसा शरीर में जा रहा है तो लिवर-किडनी जैसे अंगों को खराब होने से आप कैसे रोक सकते हैं....सस्ते मिल्क पावडर की बात से याद आया शायद आज से पंद्रह साल पहले की बात जब सस्ते किस्म के मिल्क-पावडर से दर्जनों बच्चे चल बसे थे...उन के गुर्दे खराब हो गये थे ..बाद में जांच हुई तो पता चला कि मिल्क पावडर में यूरिया और पता नहीं ऐसी कुछ और चीज़ों की मिलावट हुई मिली थी...

ठीक कहती है विद्या बालन जो लोगों को तो कह कह के थक चुकी है ..अब मख्यियों से कह लेती है कि लोगों की सेहत का ध्यान करियो.....काश, सभी लोग सचेत हो जाएं .....वरना फिर खोये से ही बात करनी होगी !

मत खाइए मिठाईयां, न इस दीवाली पर न ही इस ईद पर  ....कभी नहीं.....एक बात और, आप भी न खाईए, औरों के लिए भी न लेकर जाइए....पता है एक बात है , हम चाहे कितने भी संयम से रह रहे हों तो भी कहीं से मिठाई आने पर तो खा ही लेते हैं ....सब मिलावट, घटिया खोये, मैदे, घटिया किस्म के रंग और फ्लेवर्ज़ का कमाल है, और कुछ नहीं है......सेहत खराब, बहुत खराब करने के लिए बनी हैं ये सब चीज़ें ....मैं वैसे तो मिठाई बहुत कम ही खाता हूं ...मुझे पसंद तो बहुत है ...लेकिन पिछले २५ सालों में कुछ हालात ही ऐसे बने कि लगभग छूट ही गई ये मिठाईयां ...मिलावट के डर ने ऐसा खौफ़ज़दा किया कि आम तौर पर चाह कर भी खोये या बाहर के पनीर से तैयार हुई कोई भी चीज़ खाने की इच्छा ही नहीं होती !

आप भी ध्यान रखिएगा और बच के रहिए...दीवाली आ रही है!


सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

हम सब मुसद्दी ही हैं ..कोई थोड़ा कम,कोई ज़्यादा

वोटर कार्ड (चाहे आप उस शहर में ३० साल पहले रहे हों) 
आधार कार्ड
पासपोर्ट फोटो (जितनी ज्यादा अपने झोले में रख सकें..)
राशन-कार्ड (चाहे पच्चीस तीस साल पुराना हो, परेशान मत होइए, कोई कुछ नहीं पूछेगा)
अपना वर्तमान पहचान पत्र तो साथ में रखना ही है हमेशा
ड्राईविंग लाइसेंस 
पैन कार्ड 
यैलो कार्ड 
अपना डेबिट कार्ड 
क्रेडिट कार्ड 
चैकबुक, पासबुक, पुरानी नईं जो भी हैं बस थैले में रख तो लीजिए...
बिजली के बिल या टेलीफोन के बिल की कापी भी पहले मांगी जाती थी(रख लीजिए थैले में अगर आप के पास है तो) 
अगर आप के बच्चों से संबंधित कुछ लेन देन है तो उस का जन्म-प्रमाण पत्र..
अगर पिता जी स्वर्गवासी हैं और आप मां के साथ जा रहे हैं तो पिता जी के स्वर्गलोक प्रस्थान के प्रमाण की भी कुछ कापियां रख लीजिए...
अपना वह फोन जिस पर आप को बैंक के मैसेज आते हैं..
(इस के अलावा भी आप शांत मन से दस मिनिट के लिए सोचिए कि अगर आप उस बाबू की जगह हों तो आप किसी से किस किस दस्तावेज़ की मांग कर सकते हैं, वे सब कुछ थैले में साथ लेकर चलिए) 

अभी तो मुझे इन डाक्यूमेंट्स का ध्यान आ रहा है ...उस जिल्लत के आधार पर जो इतने वर्षों में डाकखानों और बैंकों में झेलनी पड़ी ..और जो इस जिल्लत से सीखा....मैं अकसर लोगों से कहता हूं कि जिल्लत से घबराया मत करिए...हर अनुभव हमें बहुत कुछ सिखा भी जाता है ..

हां, तो जो मैंने ऊपर लिस्ट तैयार की है, वह इसलिए है कि बैंक और डाकखाने में पता नहीं कब कौन सा दस्तावेज मांग लें, इस का अंदाज़ आप नहीं लगा सकते..मैं भी नही ंलगा पाया पचास की उम्र पार करने के बाद भी ...

दरअसल जो काउंटर पर कर्मचारी बैठा है, वह आप को भगवान होता है उस समय ..उस ने जो कह दिया वह कानून है .....और बहुत बार सब कुछ उस के मूड पर ही निर्भर करता है और आप के बातचीत करने के अंदाज़ पर भी ...इसलिए बेहतर यही होगा कि अपनी सभी डिग्रीयां पीएचडी-डीएचडी भी घर पर ही रख कर जाइए..वहां जाकर उस बाबू से कोई तर्क-वितर्क के चक्कर में पड़ गये तो अपना ही नुकसान है .....किसी सीधे-सादे काम में भी ऐसा अडंगा लगा देगा कि बार बार हांफने लगेंगे आप ...वहां तो बस चुपचाप रहने में और जो कहा जाए उतना ही करने में भलाई है ....


एक तो यह केवाईसी की बड़ी सिरदर्दी हो गई है .....कुछ कुछ अंतराल के बाद अब मैसेज आने लगे हैं कि आप का खाता के वाई सी कंप्लायंट नहीं है ...अपनी शाखा से संपर्क कीजिए...वहां जाने पर अगर तो आप ऊपर दी गई मेरी चैक-लिस्ट के हिसाब से जाते हैं... तो ज्यााद सिरदर्दी नहीं होगी...बाबू जो जो मांगता जाए, उसे उसी समय उस की कापी थमाते जाइए....बिना कुछ कहे ..जैसे आप को दीन-दुनिया का कुछ पता नहीं....तीन चार दस्तावेज मांगने पर वह थोड़ा सा थक जायेगा कि इस के पास तो सब कुछ है..इसलिए आप को काम होने की पूरी संभावना है ...

उस दिन ऐसा ही हुआ ...बैंक में कुछ काम था ...मैंने बेटे से कहा कि उस के पास जितने भी दस्तावेज हैं उन सब को और उन की फोटोकापियों को साथ लेकर चलेंगे ..मैंने भी अपने यही सारे हथियार साथ ले लिए...पहले तो जो डेस्क पर जो मैडम थी उन्होंने ने तीन चार तरह के दस्तावेज मांग लिए...उन का हर बार कहने का यही अंदाज़ था, यह लाना पड़ेगा...वही दस्तावेज उसे तुरंत थैले में से निकाल कर दे दिया जाता ....और यह प्रक्रिया इतनी तेज़ी से की जाती कि उसे वह दस्तावेज देखने-निहारने का समय ही न मिलता...बहरहाल, केस पहुंचा अधिकारी के पास....उन्होंने भी दो दूसरे दस्तावेज़ों की मांग कर दी...वे भी तुरंत उन्हें थमा दिये गये... .नतीजा यही कि काम हो गया.....वरना कुछ भी कम होता तो काम लटक जाता...

मैं बहुत बार सोचता हूं कि हमारे देश में यह सब सिक्योरिटी इतनी टाइट है तो फिर कैसे माल्या जैसे लोग रफू-चक्कर हो जाते हैं...चार दिन खबरों में रहते हैं .....फिर लंबी चलने वाली कानूनी प्रक्रिया ...

हां, जाते जाते एक बात....चुपचाप भोंदू की तरह सब कुछ दिए जाने के बाद भी अगर अंत में आप को यह कह  दिया जाए कि क्या आप किसी गवाह को ला सकते हैं जो आप को जानता-पहचानता हो.....तो अगर उस समय आप का सब्र का बांध टूट पड़े तो अचानक आप के मुहं से फिरंगी भाषा के कुछ शब्द फूट पड़ेंगे......बड़े शालीन ढंग से .....तब बाबू को अचानक झटका लगता है कि यार, यह तो पढ़ा लिखा है .......शायद आप को काम हो जाए......अगर नहीं होता तो फिर आप को आखिर में उस बाबू को कहना होगा कि आप इस पर Regret लिख कर मुझे लौटा दीजिए.......पूरी संभावना है कि इतनी स्टेज तक पहुंचते पहुंचते आप का काम हो जायेगा.....वरना मैनेजर के पास जा कर थोड़ी फर्राटेदार इंगलिश का रूआब ज़रूर काम आ जायेगा.... Guaranteed!

वैसे मैं एक बात आप से शेयर करूं.....मुझे बैंकों और डाकखाने में जाने से बहुत नफ़रत है ...बडी़ फार्मेलिटीज़ हैं....यह लाओ, वो लाओ....आप की फोटो हमारे रिकार्ड में नहीं है, आप के दस्तखत अभी सिस्टम में नहीं हैं....ये सब बातें भुग्ती हुई हैं इसीलिए इतनी सुगमता से दिल से निकल पड़ीं.....

और  हां, उस मैट्रिक - हाई स्कूल के सर्टिफिकेट की फोटोकापी मैं कैसे भूल गया...उस की भी कुछ कापियां झोले में फैंके रखिए, क्या पता किस बाबू की जिज्ञासा या उस का शक उसी प्रमाण-पत्र से ही शांत हो पाए..

इस पोस्ट रूपी लिफाफे को थूक से चिपकाते हुए (हम बचपन में यही तो करते थे...) यही ध्यान आ रहा है कि इस में तो आफिस आफिस वाले मुसद्दी बाबू की बेबसी ब्यां हो गई कुछ कुछ ....सिर भारी हो गया मेरा तो लिखते लिखते ..चलिए, इस भारीपन को बेलेंस करने के लिए एक हल्का फुल्का गीत सुन लेते हैं...






सेब- सीधे हिमाचल के बागानों से ..

परसों मैं रोहतक से दिल्ली आ रहा था..नांगलोई से दो युवक डिब्बे में चढ़े...जबरदस्त हड़बड़ाहट...जैसे तैसे उन के सेबों की चार पेटियां सीटों के नीचे फिट हो जाएं...उन पेटियों के साथ धक्का-मुक्की करने के बाद दस मिनट में उन्होंने यहां वहां सारा माल फिट कर ही दिया...टीटीई आया...हां भई, कहां से आरक्षण है?...ऩई दिल्ली से है।

टीटीई ने कहा कि ऐसे कैसे, नांगलोई से कैसे आप चढ़ गये इस आरक्षित डिब्बे में....उन युवकों ने अपना परिचय दिया..थोड़ी उस से रिक्वेस्ट करी और टीटीई साहब आगे से ऐसी हरकत न करने के लिए आगाह करते हुए लौट गये..

मैं भी कहां कुछ कहने से रह पाता हूं...मैंने इतना ही कहा ...An apple a day keeps the doctor away! और आप लोगों ने तो लगता है पूरे साल का ही जुगाड़ कर लिया है...वे भी हंसने लगे ...वे किस विभाग में काम करते थे, वह लिखना यहां ज़रूरी नहीं है ..ठीक भी नहीं लगेगा।

उन्होंने बताया कि वाराणसी जाना है ...और मुझे जब उन के विभाग का पता चला तो मैंने उन के अधिकारी का पदनाम लेकर कहा कि यह उन के लिए दीवाली के तोहफ़े का जुगाड़ किए दे रहे हैं आप...वे फिर हंस पड़े......बताने लगे कि आप बिल्कुल सही कह रहे हैं..मैंने कहा कि ठीक है, अब लोग कहां रंग बिरंगी ईमरतियां, बर्फीयां खाते हैं....इस तरह की फ्रूट ही ठीक है..

एसी टू के उस कैबिन में एक अधेड़ उम्र की महिला भी थीं...वह भी उन की बातों में पूरी दिलचस्पी दिखा रही थी ...उन लड़कों ने बताया कि ये पेटियां वे आज़ादपुर मंडी से लेकर आये हैं...मुझे लगा कि वहां पर बहुत बड़ी सब्जी-फल मंडी है, इसलिए वहां से खरीद लाये होेंगे ..

नहीं, वे यह खरीद कर नहीं लाये थे, जैसा उन्होंने बताया कि उन के एक अंकल फौजी अफसर रिटायर हैं और अब शिमला के भी ऊपर उन्होंने सेब के बाग खरीद लिये हैं...यह उन्हीं के खेत से हैं...बता रहे थे कि ये सेब वहां पर तो १५-२० रूपये किलो के हिसाब से ही बिकते हैं...लेकिन इन सेबों की सब से खास बात यह है कि इन पर वैक्स (मोम) नही ंलगी है....

उन से एक विश्वसनीय बात यह पता चली कि बिना वैक्स के सेब इतने दिन रह ही नहीं सकता और मंडी में लाने के बाद सभी सेबों पर वेक्स की कोटिंग की जाती है ...लेेकिन ये सेब जो वे अपने साहिब लोगो ं के लिए ले जा रहे हैं इन पर वेक्स बिल्कुल भी नहीं है...

उस डिब्बे का माहौल इतना सेबमय हुआ देख मैं मन ही मन सोच रहा था कि ये सेब भी कितने खुशकिस्मत हैं...इन सेब की पेटियों की जरिये ये युवक अपने साहिब लोगों को शीशे में उतारेंगे और फिर पता नहीं उन से ट्रांसफर, प्रमोशन, कोई अनड्यू फायदे लेंगे ....सुना है ऐसा ही होता है...और अब लोग भी सभी हथकंड़ों से वाकिफ़ हो ही चुके हैं...किस को कैसे खुश करना है, कुछ लोग इस में महारत हासिल किए रहते हैंं...

एक बार मैं फिर किसी महकमे का नाम नहीं लूंगा लेकिन सुना है कि कुछ महानगरों में रहने वाले अधिकारियों के लिए फल-सब्जियां तीन चास सौ किलोमीटर की दूरी से आती हैं और इस सेवा के लिए बंदे तैनात होते हैं...जम्मू से चावल, राजमा, अमृतसर के पापड़-वडियां, लुधियाना के शर्बत, मुरब्बे, आचार,  लखनऊ के टूंडे कबाब, कढ़ाई वाले सूट-कुर्ते...क्या क्या नाम गिनाऊं...बेकार में!

हां, तो सामने बैठी औरत को तो इस बात की चिंता थी कि उसे इस तरह के सेब कैसे मिलेंगे दिल्ली में रहते हुए..उन से फोन नंबर मांगने लगी..उन्होंने कहा कि नहीं, यह संभव नहीं है...इस तरह के सेब बिकाऊ नहीं है, और वे विक्रेता भी नहीं हैं...उन युवकों ने एक सेब निकाल कर मुझे खाने के लिेए कहा ...मैंने कहा...बढ़िया है, लौटा दिया...फिर उन्होंने एक गोल्डन सेब निकाल कर कहा कि आप इसे तो खा कर देख ही लीजिेए...मैंने उस सेब को सूंघा तो उन से कहा कि यह खाने के लिए नहीं, सहेजने के लिए है ...दिव्य सुगंध है इसकी...


पानी से धो कर खाने पर उस का स्वाद बहुत ही बढ़िया लगा .. अब पता नहीं यह साईकोलॉजिकल था ...या फिर असल में ...
लेकिन कल मैंने  उन युवकों की बात से यह सीख ज़रूर ले ली है कि यह जो मैं कभी कभी बिना काटे सेब खा लेता हूं....यह अब बंद करना पड़ेगा....शायद आप लोगों ने भी नोटिस किया होगा कि अब सेब को छिलके के साथ खाने में बड़ा अजीब सा लगता है ..बकबका सा लगता है .....शायद यह उस के ऊपर चढ़ी मोम की वजह से ही होता हो...

सेबों की बात होने पर उन दोनों युवकों और उस महिला को जब मेरे बारे में पता चला कि मैं डैंटल-सर्जन हूं ..तो फिर वहां पर मुझे उन की दांतों से जुड़ी समस्याओं का निवारण भी करना ही था... लेकिन मुझे इस में कोई आपत्ति नहीं होती कभी भी, जिस बात की जानकारी जिस के पास है, उसे ही लोग उस के बारे में पूछेंगे...मैं कभी किसी को टालने वाले बात नहीं करता...

मैं नई दिल्ली पर उतरने वाला था ..वे थोड़ा सा परेशान सा दिखे कि अब जिन लोगों की सीटें हैं अगर उन लोगों ने अपना सामान अपनी सीटों के नीचे ही रखने को कहा तो ......मैंने कहा..तो क्या, आप लोगों को उस की क्या चिंता है...मैंने अपने हाथ वाले सेब की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि ...आप के पास ये सब हैं न इतने सारे, एक एक उन्हें भी थमा कर उन की भी बोलती बंद कर दीजिएगा.....एक बार फिर से डिब्बे में ठहाके लगने लगे!

चलिए, अपनी बात को यहीं विराम देता हूं ...वैसे भी दीवाली की खरीदारी का मौसम है, आपने भी जाना होगा....लेकिन तोहफ़े खऱीदते समय हमेशा उन अनजान लोगों को विशेष कर ध्यान में रखिए जिन को शायद ही कभी कोई याद रखता है या यही सोचता है कि क्या यार...

तोह़फे दीजिए....अपने स्कूल के पुराने मास्टरों को ढूंढिए, अगर वे अभी तक सितारों में नहीं मिल गये हैं तो उन के पास जाकर उन को तोहफ़े दीजिए...पुराने दिनों को याद कीजिए...अगर आप के गुरुजन अभी नहीं है, तो बच्चों के पुराने या मौजूदा टीचरों को इसी बहाने याद कीजिए...जिन बसों में आप के बच्चे रोज़ स्कूल से आते हैं...उसे के ड्राईवर और कंडक्टर को याद करने की हमें फुर्सत ही कहां है..मुझे याद है कि कुछ साल पहले जब मैंने उस स्कूल बस के कंडक्टर को एक भेंट दी थी दीवाली से एक दिन पहले तो उसे कितना अच्छा लगा था... अपनी हाउसिंग सोसायटी के सभी सिक्योरिटी गार्ड्स को ज़रूर याद रखिए.....जिस सैलून में आप के हर महीने बाल कटवाने पहुंच जाते हैं उस गणेश को आप कैसे भूल सकते हैं....कभी यह सब कर के देखिएगा...बहुत अच्छा लगेगा...बात तो मन की खुशी की है ...अच्छा, एक बात और ...आते जाते किसी भी ज़रूरतमंद दिखाई देने वाले अंजान बंदे को तोहफ़े देने से हमें कौन रोक रहा है....इस बात यह भी काम करेंगे!

और एक बात...बहुत बार लोग ऐसे ही एक रिचूएल के तौर पर ही तोहफों के आदान-प्रदान कर लेते हैं....इधर से आया उधऱ भिजवा दिया...क्या फायदा इस सब सिरदर्दी का ...इस ते बेहतर होगा चुपचाप घर में बैठ कर रेडियो विविध भारती सुनिए। तोहफ़ों को तोहफे ही रहने दीजिए....उन पर चाटुकारिता, फ्लैटरी का रैपर मत लपेटिए.....इन छोटी छोटी बातों से कुछ नहीं होता ..जो लोग हाशिये पर खड़े नज़र आएं, उन्हें ढूंढ ढूंढ कर खुश करिए......यही दीवाली का असली जश्न है, आप का भी और उन का भी !!

सेब की बागानों की बात चली तो देखिए मुझे कितना सुंदर यह गीत ध्यान में आ गया...one of my favourites since school days..





बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

दलाली, तलाशी और चुप्पी ...

दरअसल इस पोस्ट का हैडिंग मुझे भी अजीब सा लग रहा है ...लेकिन बिना हैडिंग के पोस्ट पब्लिश नहीं हो पाती..इसलिए ऐसे ही जो मन में आया लिख दिया...
कल से तीन बातें मन में घूम रही हैं...सोच रहा हूं लिख के छुट्टी करूं....वरना बेकार में परेशान किए रहेंगी...

दलाली...

कुछ साल पहले मेैं शताब्दी में सफ़र कर रहा था...पिछली सीट पर दो ऑफीसर जैसी बातें करने वाले दोस्त दिखने वाले बंदे बैठे हुए थे...अपने बॉस का तवा उन्होंने लगा रखा था... बीच बीच में तो मुझे झपकी आती रही ...लेकिन अपने बॉस की बातें सुना रहे थे कि किस तरह से उस ने किसी भी शहर में कार्यरत कनिष्ठ अधिकारियों को नहीं बख्शा...कहीं से आचार, कहीं से मुरब्बे और कहीं से शर्बत और कहीं से देसी घी की गज्जक और रेवड़ीयां मंगवाता रहता था .. और भी बहुत कुछ...और आपस में बात कर रहे थे कि पाखंडी इतना तगड़ा कि सभी अंगुलियों में हर तरह के नग और मोती धारण किये रहता था...कैसे कोई ग्रह उस की खिलाफ़त कर पाए।

उन में से एक ने किस्सा सुनाया कि कैसे एक मशीन उन के दफ्तर में आई तो उस के पीछे पड़ गया कि कंपनी से पांच हज़ार रूपये दिलवाओ...यह बंदा अपने दोस्त से कह रहा था कि अब उसने वैसे तो किसे से कुछ लिया नहीं था, एक बार तो उसे कहने की इच्छा हुई कि सर, आप अपने आप ही ले लीजिए...लेकिन इतनी हिम्मत जुटा नहीं पाया...लेकिन जब तक पांच हज़ार रूपये उस के घर उस के माथे पर नहीं मार आया उस बॉस को चैन नहीं पड़ा....

दूसरा उस के ट्रांसफर के किस्सों को याद कर रहा था कि कैसे उसने छठे पे कमीशन के कुछ आफीसर्ज़ के सारे के सारे एरियर्ज़ हड़प लिए... कमबख्त पता नहीं क्यों इतना भिखमंगा सा लगने लगा था अपनी नौकरी के पिछले दो तीन सालों में...जी हां, उन्होंंने उस के लिए ऐसे ही शब्द इस्तेमाल किये थे...

और दूसरा कहने लगा कि ऐसा लगता था कि यार वह बॉस नहीं है, ट्रांसफर करने करवाने वाला कोई उच्चकोटि का दलाल है ....ट्रांसफर करवाने, धमकाने और निरस्त करने के बल पर ही उसने फगवाड़े में एक आलीशान बंगला खड़ा कर लिया था ...

दूसरे ने उस की हां में हां मिलाते हुए कहा कि यार, तुम ने बिल्कुल सही पकड़ा ...बिल्कुल दलाल ही तो लगता था...उस की शक्ल भी वैसी ही हो गई थी..(आगे उसने जो कहा, वह मैं यहां नहीं लिख सकता, आप समझ सकते हैं) ...विधि का विधान देखिए रिटायरमैंट के दिन जब रात में पार्टी में धुत हो कर अपने ड्राईवर के साथ फगवाडा़ बंगले में जा रहा था तो रास्ते में ही सीबीआई टीम ने कार से तीन करोड़ की रकम के साथ धर दबोच लिया... अभी केस चल ही रहा था कि डेढ़ साल में वह चल बसा...

किसी ने सही ही कहा है ...कोयलों की दलाली में मुंह काला...

चुप्पी ...

कुछ  दिन पहले एक साहित्यिक कार्यक्रम में था....एक ९७-९८ वर्ष की महान् साहित्यकार का सम्मान होना था...साहित्यकार तो संवेदनशील होते ही हैं...सब ने उन के शतायु ही नहीं, दीर्घायु होने की प्रार्थना की...किसी ने कहा कि बख्शी दीदी आज ९८ साल की हैं, ईश्वर उन्हें मेरे ९८ साल  के होने तक स्वस्थ रखे... सब का उदबोधन सुन कर अच्छा लग रहा था...इतने में शहर के एक नामी गिरामी सेठ की बारी आई...उसने अपने भाषण मेे ंकहा कि दीदी, ९८ साल की हैं, इन्हें देख कर अच्छा लग रहा है, मित्रो, अब उम्र ही ऐसी है ...एक तरह से अब यह मेहमान ही हैं..दो तीन या चार साल की और....ज़्यादा से ज़्यादा किसी आदमी की इतनी ज़िंदगी ही तो होती है ...उस रईस के ये शब्द सुन कर पंडाल में बैठे सभी लेखक-विचारक एक दूसरे का मुंह देख कर हंसने लगे कि  यह कह क्या रहा है! उस समय मुझे यही बात याद आ रही थी...

उस समय मैं भी यही सोच रहा था कि वह बात ठीक ही है कि कईं बार चुप रहने में ही अकलमंदी होती है ...और इस चुप्पी से भले ही लोगों को हमारे मूर्ख होने का शक होने लगे....वरना एक बार मुंह खुलने पर तो फिर शक की कोई गुंजाईश ही नहीं रहती!



तलाशी...

तलाशी एयरपोर्ट पर, सिनेमा घरों में, शापिंग माल में, मेट्रो स्टेशनो ं पर सब जगह होती है, बुरा नहीं लगता ...कुछ वीवीआईपी के रिश्तेदारों को लगता होगा बुरा... जिन को अभी एग्ज़ेम्ट लिस्ट में शामिल नहीं किया गया है ...लेकिन यह भी गलत है ...कुछ लोगों पर आप कैसे दूसरों से अधिक भरोसा कर सकते हैं...चलिए, इस दिशा में भी मौजूदा सरकार ने कुछ काम तो किया था शुरु शुरु में ही ...उस के बाद कुछ खबर नहीं आई। लेकिन मुझे एक तलाशी थोड़ी परेशान कर गई...तीन चार दिन पहले मैं एक सर्विस स्टेशन के बाहर खड़ा था... वर्करो ंकी छुट्टी का टाइम था, जिस तरीके से उन की तालाशी ली जा रही थी बाहर आते वक्त, यह मुझे कचोट गया ... गेट पर खडे़ उस सिक्योरिटी वाले गोरखे का तरीका ही कुछ ऐसा था....वर्करों के शोल्डर बैग्ज़ के सभी हिस्सों को ऐसे टटोल रहा था कि ..........क्या कहूं, मन खराब हुआ यह देख कर .....यह सोच कर कि छोटे बच्चे भी यह नहीं चाहते आज कल कि कोई उन के बैग से छेड़छाड़ करे ...और यहां तो .!!

तीन बातें कह कर मन को कुछ सुकून सा मिला तो है ...बाकी का काम यह गीत कर देगा...




मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

पायरिया रोग लाइलाज नहीं है...

पायरिया रोग याने वह रोग जिस में मसूड़ों से खून आने लगता है, मसूड़े फूल जाते हैं...पस रिसती है, बाद में दांत हिलने लगते हैं..दांतों में ठंडा गर्म की शिकायत शुरू हो जाती है ...मसूड़े दांतों से पीछे सरक जाते हैं...(Gum recession)

जितना यह नाम भयानक है ...और जितना डर लोगों के मन में इस के बारे में है, उतना डरने वाली बात है नहीं... पहली बात यह कि इस से बचाव संभव है और दूसरी बात यह कि अगर यह हो भी इसका पूरा उपचार हो जाता है ...


यह युवक २० वर्ष का है, इस के मसूड़ों की हालत आप देख रहे हैं...हाथ लगाते ही इन से खून टपकने लगता है ...कह रहा था कि पिछले चार पांच महीने से परेशान हूं...लेकिन कल किसी दोस्त ने आप के बारे में बताया तो मैं हिम्मत कर के चला आया...

जितनी पेस्ट होती है कर रहा है, लेकिन अच्छे से कर नहीं पाता...

चलिए, यह तो कर रहा है लेकिन अधिकतर लोग इस तरह की अवस्था में ब्रुश करना ही छोड़ देते हैं...सोचते है ंकि ब्रुश करने से खून आता है तो चलिए ब्रुश करना ही छोड़ देते हैं...आर अपनी अंगुली से दांत मांजने लग जाते हैं...

इस से तकलीफ़ बढ़ जाती है, कम नहीं होती ..

और ऊपर से टीवी पर आने वाले रंगारंग विज्ञापन ...महंगी ठंडे गर्म वाली पेस्टें या कोई देशी पेस्ट खरीद लेते हैं क्योंकि इन विज्ञापन की भाषा ही इतनी लच्छेदार होती है ..लेकिन इस से रोग कम नहीं होता, बढ़ता ही रहता है।

दांतों में ठंडा गर्म लगने के उपचार के लिए प्रचारित की जाने वाली पेस्टें इस तकलीफ़ से छुटा तो क्या दिलाएंगी, बस वे शायद कुछ समय के लिए ठंडा-गर्म लगने वाला लक्षण दबा लेती हैं.. आदमी समझता है कि मैं ठीक हो गया...बस, यही काम है इस तरह की पेस्टों का।

इस पायरिया रोग के बारे में और क्या लिखें....सब कुछ तो पहले ही लिखा जा चुका है ...कभी कभी रिमांइडर के तौर पर पुराने पाठ को दोहराना पड़ता है ..बस।

इस युवक के मसूड़ें भी बिल्कुल दुरुस्त हो जाएंगे...पूछ रहा था कि क्या इस की दवाई लंबे अरसे तक चलेगी...मैंने उसे बताया कि इस के लिए कोई दवाई होती ही नहीं...बस, तुम्हें दांतों की अच्छे से साफ़-सफ़ाई रखने का सलीका सीखना होगा, जुबान रोज़ाना साफ़ करनी होगी....और मेरे पास तीन चार बार आकर इस का इलाज करवाना होगा...

यहां यह बताना अनिवार्य होगा कि इस छोटी उम्र में अच्छी इम्यूनिटी की वजह से इस तरह की मसूड़ों की सूजन बड़े ही आराम से और बड़ी जल्द ही ठीक हो जाती है ... कुछ ही दिनों में यह सब परेशानी गायब, लेकिन नियमित सुबह रात ब्रुश अच्छे से अच्छी क्वालिटी की पेस्ट से करना निहायत ही ज़रूरी है ...और दिन भर में कुछ भी खाने के बाद कुल्ला कर लेना एक और अच्छी आदत है..आप भी इसे डाल लीजिए ..

इस युवक के बहुत जल्दी ठीक होने की संभावना इसलिए भी है क्योंकि यह गुटखा-पान मसाला जैसी किसी चीज़ों का इस्तेमाल नहीं करता ..ये सब चीज़ें पायरिया रोग में कोढ़ में खाज जैसा काम करती हैं..

जाते जाते बस एक बात कि रोज़ाना हर जगह देखते हैं कि बड़ी बड़ी कंपनियां या बड़े बड़े लोग यह प्रचारित करते हैं कि पायरिया रोग उन की इस पेस्ट से हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा...वैसे बाज़ारों में भी रिक्शा में बैठ कर कुछ नीमहकीम यह ढिंढोरा पीट रहे होते हैं कि उन के मंजन से पायरिया रफू-चक्कर हो जायेगा......पक्का यकीन रखिए कि ऐसा हो ही नहीं सकता, कभी भी....ये सब विज्ञापनबाज़ी है ...और कुछ नहीं, पायरिया के उचित इलाज के लिए किसी प्रशिक्षित दंत चिकित्सक की चौखट पर जा कर दस्तक देनी ही होगी....वरना बेकार के चक्करों में समय नष्ट करने वाली बाते हैं..

दांतों, मसूडों की हालत जैसी भी है, घबराईए नहीं, जा कर दंत चिकित्सक से मिलिए... एक बात और भी है कि मसूड़ों से खून निकलने के बीसियों कारण हैं...रक्त के कैंसर से लेकर मुंह के कैंसर तक ....लेकिन ओपीडी में आने वाले अधिकांश केसों में 99 प्रतिशत या उस से भी ज्यादा पायरिया के रोगियों में मूसड़ों की सूजन ही इस का कारण पाया जाता है ....Reminds me of my college professor who used to advise us quite often..."In a patient, you see what you know, you don't see what you don't know! First and foremost, always think of the common symptoms of the common diseases."

और हां, इस युवक के मसूड़ों के फिर से स्वस्थ होने की तस्वीरें मैं कुछ दिन बाद शेयर करूंगा...



सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

भर पेट घनघोर ठंडा पानी २ रुपये में ...

अकसर इस तरह की बात खाने के साथ चलती है ...भर पेट खाना....लगभग पंद्रह वर्ष पहले की बात है मैंने जयपुर के एक चौराहे पर एक होटल के बाहर इस तरह का बोर्ड देखा था कि इतने रूपये में आप भरपेट खाना खा सकते हैं...पहली बार इस तरह की विज्ञापन देखा था...वरना हम तो यही जानते हैं कि भर पेट खाना या तो घर में मिलता है या फिर गुरुद्वारे के लंगर में...
इसलिए आज लखनऊ के चारबाग एरिया में इस तरह का भर पेट पानी वाला स्टॉल देखा तो उत्सुकता हुई इस के बारे में जानने के लिए...रूक गया मैं वहीं...


बोर्ड तो आप देख ही रहे हैं कि २ रूपये में भर पेट पानी पीजिए...और ब्रांड भी एक तूफ़ानी सा ही लगा...घनघोर ठंडा पानी.. डिस्पोज़ेबल पानी के गिलास में आप २ रूपये में जितना भी पानी पीना चाहें पी सकते हैं...

मुझे उत्सुकता हुई इस सेवा के बारे में कुछ जानने की ...

रुक तो मैं गया ही था...यह जो लड़का पानी के स्टाल को संंभाले हुए है...इस के पास ही एक अधेड़ उम्र का बंदा इस का मालिक लग रहा था..एक कुर्सी पर बैठा हुआ ...लोगों को चेता रहा था कि देखो, भई, पानी फैंको मत।


अब मुझे लगा कि इस से बात शुरू कैसे करूं, प्यास मुझे है नहीं... मैंने ऐसे ही पूछा एक बेवकूफ़ाना सा प्रश्न उस की तरफ़ उछाल ही दिया...चाहे कोई एक बोतल पानी पी ले?

उसने कहा कि जी हां, डिस्पोजेबल गिलास में अगर पानी पी रहा है कोई तो वह २ रूपये में जितना भी पीना चाहे पी ले... और एक बात कि अगर किसी के पास पैसे नहीं है तो वह भी बिना गिलास के कैंटर की टोटी के नीचे मुंह लगा कर अपने हाथ से पानी पी सकता है ..

मैंने उस की पीठ थपथपाई....कहने लगा कि बाऊ जी, यह काम ३० सालों से चला रहे हैं...सुबह से शाम सभी दिन यह पानी की सेवा चलती है ...बेशर्ते की बिजली आ रही है क्योंकि इन सभी कैंटरों में पानी जो भरा जाता है वह बोरिंग का पानी होता है ...और मोटर चलाने के लिए बिजली होनी ज़रूरी है ! आप उधर देख रहे हैं, यह एक लेबर भी रखा हुआ है पानी लाने के लिए!

एक बात उसने और भी कही कि अगर कोई दिव्यांग है तो उसे मुफ्त पानी पिलाया जाता है ...

मैंने उस बंदे को कहा कि इस के बारे में तो अखबारों में आना चाहिए....उसने कहा कि बहुत सी अखबारों में आता रहता है ...और लोग फोटो खींच ले जाते हैं और इस के बारे में नेट पर भी चलता रहता है ...(शायद यू-ट्यूब पर भी किसी ने अपलोड़ किया हो !)

 मैंने भी उस से वायदा किया कि मैं भी इस के बारे में इंटरनेट पर शेयर करूंगा....

चलिए, यह बंदा तो अच्छा काम कर रहा है...इस को साधुवाद देना चाहूंगा...

लेकिन मुझे सारे रास्ते आज से ४० साल पहले हमारे स्कूली दिनों के ज़माने की छबीलें और प्याऊ याद आते रहे ..दुर्ग्याणा मंदिर के दशहरा ग्राउंड के पास ही सेवा समिति के उस प्याऊ में जो बुज़ुर्ग हमें स्कूल से आते वक्त ठंडा पानी पिलाया करता था उन की उम्र कम से कम ८० की तो होगी ...हम लोग पांचवी कक्षा में थे और प्याऊ का इंतजा़र किया करते थे... १०-११साल की उम्र में इतनी अकल भी आ चुकी थी कि पानी पीने के बाद ५० पैसे के जेब-खर्च में से जो पांच दस पैसे बचे हुए हैं उसे उस प्याऊ की स्लैब पर रख देना है ....ऐसा करना बहुत अच्छा लगता था ..उस बुज़ुर्ग ने कभी मांगे नहीं और कभी हमारे रखे पैसों की तरफ़ देखा भी नहीं और न ही कभी मुंह से कुछ भी कहा ....बहुत से रिक्शा वाले और दूसरे राहगीर भी वहां ज़रूर पानी के लिए रुकते.... शायद उस बुज़ुर्ग और उस तरह के कुछ लोगों से मिली प्रेरणा ही है कि मेरी Wish-list में कुछ प्याऊ खोलना और उस के अंदर बैठ कर लोगों को पानी पिलाने की सेवा करने की बहुत तमन्ना है....कभी ऐसा कुछ ज़रूर करूंगा..अभी पहले ढिंढोरा तो पीट लूं और TRP तो बटोर लूं...😀😀😀😬😬

पानी पर बहुत कुछ लिखा है पहले ही ..लेकिन जब पोस्ट के बाद पानी से जुड़ा कोई गीत लगाने की बारी आती है तो मुझे बस यही गीत याद आता है ....पानी रे पानी तेरा रंग कैसा...


शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

किताबें झांकती हैं, बातें करती हैं..

आज यहां लखनऊ में एक और पुस्तक मेला शुरू होने जा रहा है ... कईं बार जाऊंगा वहां इन तारीखों में .. चुन चुन कर बड़े नामचीन लेखकों की कुछ पुस्तकें हम लोग वहां से खरीद भी लाएंगे लेकिन यह कोई भरोसा नहीं कि पढ़ेंगे कब!

अभी सुबह जागी नहीं है ...साढ़े चार बजे हैं..ऐसे ही ध्यान आ रहा है कि किताबों, पत्रिकाओं एवं कॉमिक्स से जुड़ी अपनी यादों पर कुछ लिखा जाए... 

बरकत अपना मित्र है, पंजाबी भाषा में लिखता है ... उस के घर में हर तरफ़ किताबें बिखरी रहती हैं..पिछली बार मिला तो बताने लगा कि उस की बीबी और बीवी को हर समय यही चिंता रहती है कि किताबें कब और कैसे सिमटेंगी....कईं बार उसे सलाह मिल चुकी है कि कार्डबोर्ड ेके डिब्बों में बंद कर के इन्हें संभाल ले, एक लिस्ट बना ले और जिस किताब से वास्ता हो, उसे बाद में पलंग से नीचे रखे डिब्बे से निकाल लिया करे ...लेकिन इस सुझाव को बरकत हमेशा सुना-अनसुना कर देता है ...ठहाके लगा कर कहने लगा कि सामने पड़ी हुई किताबों को तो छूने की फ़ुर्सत नहीं मिलती .. .अब डिब्बे से निकालने की कौन ज़हमत उठाएगा! 

बरकत ने एक दिल को छूने वाली बात यह भी कह दी कि उसे पता है अंत में कभी न कभी तो इन बेचारी किताबों का नसीब डिब्बे में बंद होना ही है ...लेकिन जब तक सामने दिखती हैं तो एक आस बंधी रहती है कि मैला आंचल, राग-दरबारी, झूठा सच, गोदान जैसी कालजयी रचनाएं हाथों तक पहुंच ही जाएंगी कभी भूले-भटके ..

 मैं उस की बात सुन रहा था .. तो गुलजार साहब की वह कविता रह रह कर मेरे मन में आ रही थी ...

किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से 

बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं क़िताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो कदरें वो सुनाती थी कि जिनके 
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंड लगते हैं वो अल्फ़ाज़
जिनपर अब कोई मानी नहीं उगते
जबां पर जो ज़ायका आता था जो सफ़ा पलटने का
अब ऊँगली क्लिक करने से बस झपकी गुजरती है
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, वो कट गया है
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे!! 
(गुलज़ार) 

दिनांक १५ अक्टूबर २०१६ 
यह पोस्ट मैंने कल सुबह ४.३० बजे लिखनी शुरू तो की ..लेकिन फिर नींद आ गई थी...सोच रहा हूं कि इस विषय पर जो कहना है एक पोस्ट के जरिये नहीं हो पाएगा...इस पर कभी फिर से लिखूंगा ..अभी तो बस सफदर हाश्मी साहब की इस बात का ध्यान आ रहा है ...

किताबें करती हैं बातें..
बीते जमानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की, कल की
एक-एक पल की
गमों की, फूलों की

बमों की, गनों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में रॉकेट का राज है
किताबों में साइंस की आवाज है
किताबों में ज्ञान की भरमार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं..
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

(सफ़दर हाश्मी)

बचपन के उन स्कूली दिनों के बाद जब चंदामामा, नंदन, लोट-पोट, मोटू-पतलू, मायापुरी को पहले से आखिरी पन्ने तक पढ़ने-देखने के बाद ही भूख लगा करती थी, याद नहीं उन दिनों के बाद कब किस किताब को पूरा पढ़ा था...शायद कभी नहीं, पाठ्य पुस्तकों तक को भी नहीं...वहां भी वही चुन चुन कर पढ़ने की हिमाकत !




शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

फेस-रीडिंग भी बना एक धंधा...


एक शॉपिंग मेले में गये हुए थे कल..  मिसिज़ एक लेडीज़ स्टॉल पर सूट-दुप्पटों में व्यस्त थीं ...मैं तो कुल जमा पांच सात मिनट में किसी दुकान पर खड़ा खड़ा ऊब जाता हूं...बाहर निकला तो पास ही एक चमकदार स्टाल की तरफ़ ध्यान चला गया...


वहां पहुंचा तो ये सब रंग बिरंगी चमकीली चीज़ें देख कर मन बहला रहा था...तभी एक ग्राहक की आवाज़ सुनाई दी...यह ग्बोल है?...दुकानदार ने तुरंत कहा - "नहीं नहीं , यह क्रिस्टल है.." 

दुकानदार ने कुछ आगे कहा तो था कि यह कौन सा क्रिस्टल है ...वह बंदा थोडा़ सकपका गया ...अब मैंने उसकी असहजता भांप कर यह कह दिया कि मैंने भी ग्लोब ही समझा था..

दुकानदार कहने लगा कि यह घर की सारी निगेटिव एनर्जी सोख लेता है ....बंदे ने उस का दाम पूछा...मुझे याद नहीं कितने का था, मेरा ध्यान कहीं और था उस समय...

ग्राहक ने पूछा कि इस से छोटा नहीं है...दुकानदार तो दुकानदार ही होते हैं...नहीं, इस से छोटे का क्या करोगे?...लोग तो इस से भी बड़े बड़े क्रिस्टल ले जाते हैं, सारे घर की निगेटिव एनर्जी को इसने सोखना होता है ...


बहरहाल, फिर उस ग्राहक का ध्यान इस पिरामिड की तरफ़ चला गया..साढ़े सात सौ रूपये का था...देख कर उसने रख दिया वापिस...और यंत्रों-तंत्रों में उलझने के लिए शायद...एक घर के बाहर लटकाने वाला कुछ अष्ट धातु का यंत्र देख  कर उसे यही लगा कि जंग तो नहीं लग जायेगा...कोई चुरा तो नहीं लेगा...बिल्कुल अपने लोगों जैसे मध्यमवर्गीय प्रश्न...लेकिन उसे दुकानदार ने अच्छे से फिर समझा दिया कि इस यंत्र को किसी कमरे के बाहर कील लगा कर फिक्स कर लीजिए...बस, और अगर इसे जंग लग गया या ७२ घंटे के अंदर कोई शुभ बात न घटित हो तो भी मुझे फोन कर देना....मैं अपने इस लड़के (वर्कर) को घर भिजवा कर इसे वापिस कर लूंगा...


मैं उन रंग बिरंगी आकृतियों में उलझा हुआ था ...बिना किसी मतलब के ...क्योंकि सत्संग में जाते हैं...हम इस सर्व-व्यापी कण कण में विद्यमान ईश्वर के अलावा किसी भी यंत्र-तंत्र पर यकीं नहीं करते ...बिल्कुल भी नहीं...इन जगहों पर जाकर सत्संग की बातें अचानक मन में घूमने लगती हैं...

मेरा ध्यान गया उस दुकानदार के विज़िटिंग कार्ड की तरफ ..उस पर लिखा हुआ था...फेस-रीडिंग एक्सपर्ट .... मुझे याद आया कालेज से दिनों से छुटकारा मिलने के बाद एक बार एक किताब के बारे में सुना था.....How to read a person like a book?....किसी आदमी को एक किताब की तरह कैसे पढ़ा जाए?.....मैंने भी खरीदी थी, लेकिन अपनी हर खरीदी किताब की तरह इस के भी दो चार पन्ने पढ़ कर किसी कोने में फैंक दिया...बड़ी अजीब सी बात लगी थी कि हम लोग किसी दूसरे को पढ़ने के लिेए इतने आतुर ही क्यों हैं, पहले अपने आप को तो पढ़ लिया जाए !

हां, फेस-रीडिंग की बात पर वापिस लौटते हैं.....मैंने जिज्ञासा वश उस दुकानदार से पूछा कि फेस-रीडिंग आप करते हैं?...उसने हां कहा तो मैंने पूछा कि इस के कुछ दाम लगते हैं...उसने बताया कि दो हज़ार रूपये...और हमारा एक ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट भी है जहां पर हम लोगों को ट्रेन करते हैं...

फेस-रीडिंग से पहले वे लोग हमारे शरीर के चक्रों की चाल को चैक करते हैं...उस के हिसाब से फिर फेस-रीडिंग की जाती है ...जैसा उसने मुझे कहा...उसने यह भी कहा कि इस से आप के चेहरे का ओजस बढ़ जायेगा...

अचानक उसने मेरे से यह पूछा कि क्या आप इन सब बातों में यकीं करते हैं ?.... मैंने प्रश्न को टालना चाहा ...उस की दुकानदारी चल रही थी... लेकिन उसने तभी पूछा कि इन चीज़ों में से आपने घर में क्या रखा हुआ है ?...  मुझे और कुछ तो ध्यान में आया नहीं , बस लॉफिंग बुद्धा का ध्यान आ गया, मैंने बता दिया ...उसे शायद इत्मीनान हो गया हो कि इस को भी  इन सब में विश्वास तो है ...


लेकिन मैंने उसे यह नहीं बताया कि यह लॉफिंग बुद्धा टीवी के सामने पड़ा हुआ है ...और जब कभी भी इस की तरफ़ ध्यान चला जाता है तो अच्छा लगता है ....इस को मस्ती वाला पोज़ देख कर ...बस, और कुछ नहीं एक्सपेक्टेशन है नहीं कि यंत्र-तंत्र कुछ कर सकते हैं...

सब कुछ अपने अंदर है ..मन जीते जग जीत....बस, हम इसे बाहर ढूंढते ढूंढते बेहाल हुए जा रहे हैं..


इतने में उस ग्राहक ने साढ़े सात में इस पिरामिड जैसी रंग बिरंगे यंत्र को खरीद लिया ...और लगा पूछने कि रखना कहां है...फिर दुकानदार शुरू हो गया कि कंपास से देख लेना ...कमरे की किसी उत्तर दिशा में इसे रख देना...७२ घंटे में यह अपना काम करना शुरू कर देगा...शुभ समाचार मिलेगा !

मैं उस दुकान से हटते हुए यही सोच रहा था कि हम लोग भी किस तरह से एक दूसरे को टोपी पहनाने लगे हैं.....उस बंदे का यह खरीदारी करते वक्त अपने एक पुराने लोकल ब्रांड के हेल्मेट को हाथ में पकडे़ रखने से मुझे यही ध्यान आया कि लोग टोपियां पहनाने के इस चक्कर में मिडिल क्लॉस लोगों को कैसे कैसे सपने बेचने लगे हैं.... God bless your all children, bring them out of darkness of ignorance to this light of divine knowledge! 


गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

जुबान कटने का उपचार

हमारे शरीर में किसी भी चोट को रिपेयर करने की बेइंतहा क्षमता होती है ..हम लोग तो हर दिन कुदरत का यह करिश्मा देखते रहते हैं...वरना अगर यह चीज़ भी पैसे से ही मिलती तो कारपोरेट अस्पतालों की तो चांदी हो जाती...जिस तरह से आज कल प्लेटलेट्स का धंधा खूब चमका हुआ है...मरीज़ों को क्या पता कि किस इलाज की ज़रूरत है, किस की नहीं है!


यह जो तस्वीर आप देख रहे हैं ...यह एक ५०-५५ वर्ष की महिला की है ...यह अस्पताल में दाखिल थी ..क्योंकि इसे दौरा पड़ गया था...और यह घर में बेहोश हो गई...बेहोशी की हालत में इसे नहीं पता कैसे इस की जुबान कट गई...बहुत खून बहने लगा ...फिर इसे अस्पताल लाया गया ...खून बंद हो गया...और यह मुझे एक या दो दिन के बाद ही दिखाने आई थी.

ये ऊपर लगी दोनों तस्वीरें उस दिन की हैं जब ये मेरे पास आई थी...बहुत डरी हुई कि पता नहीं जुबान कभी ठीक भी होगी कि नहीं...लेकिन उस दिन इसे दर्द भी बड़ा था...स्वाभाविक सी बात है कि अगर कभी खाना खाते वक्त हमारी जुबान थोड़ी सी  भी दांतों के नीचे आ जाए तो कैसे हम लोगों की चीख निकल जाती है ...और यहां पर इतना बड़ा घाव था..

इसे मैंने सब से पहले यही भरोसा दिलाया कि यह सब चार-पांच-सात दिन में एकदम दुरुस्त हो जायेगा... मेरी बातों से इसे इत्मीनान सा हो गया शायद...

ऐंटीबॉयोटिक दवाईयां तो इसे पहले ही किसी दूसरे कारण से चल रही थीं...इसलिए किसी और ऐंटीबॉयोटिक की तो ज़रूरत थी नहीं, कुछ दर्द निवारक टेबलेट्स दे दी थीं...और लगाने के लिए मुंह के छालों पर लगाने वाली जो दवाईयां आती हैं...Zytee/Emergel/Dologel/Dentogel (इन में सो कोई भी एक)...उसे इस घाव पर दिन में चार पांच बार लगाने के लिए कहा गया...और साथ में बीटाडीन जैसा माउथ-गार्गल करने के लिए बता दिया था..

दो दिन बाद यह महिला फिर परसों दिखाने आई थी... बस खाने वाली दवाईयां खा रही थीं, लेकिन लगाने वाली दवाई अभी तक इसने लगानी नहीं शुरू की थी...कुल्ले बीटाडीन से कर रही थी...लेकिन फिर भी आप देख रहे हैं कि ज़ख्म ठीक हो ही रहा है ....बता भी रही थी कि अब काफ़ी आराम है ....उसे फिर से इस ज़ख्म पर दवाई लगाने की सलाह दी ...



जुबान कटने का उपचार कितना आसान है! ...आप भी यही सोच रहे होंगे ...लेकिन कड़वी जुबान से होने वाले घावों का हम लोगों के पास भी कोई उपचार है नहीं ! Mind your tongue!

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

इंस्पेक्शन वाले तेवर ...(व्यंग्य)

मुझे कईं बार वह कहानी...नहीं, नहीं, कोई व्यंग्य लेख था स्कूल की किताब में जिस में आदमियों को तीन श्रेणीयों में बांटा गया था...पहले दर्जे वाले के पास...तीन चीज़ें होनी लाज़मी हैं...चश्मा, पेन और कलाई घड़ी....ऐसे ही जिस के पास दो चीज़ें हैं, वह द्वितीय श्रेणी का और एक ही चीज़ होने पर वह बंदा तृतीय श्रेणी ....अब हमारे बाल मन ने यह कभी नहीं सोचा कि यार, अगर इन तीनों में से कुछ भी नहीं तो क्या वह बंदा ही नहीं! निर्णय आप पर छोड़ता हूं...

यह कहानी एक हिंदी के नामचीन लेखक की थी...मुझे अच्छे से याद है जब मैं यह कहानी पढ़ता था ...तो मां भी अकसर उस लेखक का नाम पढ़ कर बताया करतीं कि यह तुम्हारे नाना जी के दोस्त हैं, तुम्हारा नाना जी से कहानियां लिखते हैं उर्दू में ...फिर यह उन्हें हिंदी में लिखते हैं अपने नाम से। बड़े होते होते इस बात की पुष्टि हमें बहुत से लोगों से हो गई....पक्का यकीं तब हुआ जब नानी ने भी इस बात की पुष्टि कर दी...

पहले घर में बच्चों की किताबें सारे सदस्यों के लिए भी हुआ करती थीं...बच्चे तो भारी मन से उन्हें उठाते थे लेकिन दूसरे लोग मनोरंजन  के लिए कहानियां-कविताएं ज़रूर पढ़ते थे ..

बहरहाल, इतने सालों में यह आदमियों की श्रेणियों की बात मन में है...

फिर आदमियों की श्रेणी की बात याद तब आई जब आज से तीस पैंतीस साल पहले पंजाब का एक सर्जन जो वैसे तो सरकारी अस्पताल में काम करता था..लेकिन घर आने वाले मरीज़ों को साफ साफ पूछता था कि यात्रा टांगे में करनी है, बस में, ट्रेन में या फिर हवाईजहाज़ से ....संदेश साफ़ था..जो उस की घर में जा कर सेवा कर आते ..उन का आप्रेशन अगले ही दिन हो जाया करता था...पता नहीं कितना सच है, कितना झूठ है, बेहतर होगा आप इसे झूठ ही मान लीजिए...मेरी तरह।

लखनऊ का ऐशबाग रामलीला मैदान (आज शाम मोदी यहां आ रहे हैं) 
श्रेणीयां अभी भी दिख जाती हैं...केवल उन का रूप बदला है ... कल रात हम लोग यहां लखनऊ के ऐशबाग में रामलीला देखने गये ..इसी जगह पर आज मोदी आ रहे हैं...निःसंदेह मैंने इस तरह का भव्य रामलीला का आयोजन पहले कभी नहीं देखा था..हज़ारों की संख्या में लोग बैठ कर आनंद ले रहे थे...पंडाल में भी तीन विभाजन हो रखे थे...अति विशिष्ट, विशिष्ट और सामान्यजन .....अजीब सा लगा ...यहां पर भी श्रेणीयों का इतना चक्कर ....मुझे तो बचपन वाली रामलीला याद है ...जहां पर बहुत बड़े पंडाल में सब के लिए दरियां बिछी रहती थीं...सब को वही बैठना होता था...और हम लोग नींद लगने पर वहां पांच दस मिनट पसर भी जाया करते थे.

ऐशबाग रामलीला - निःसंदेह एक भव्य आयोजन 
वैसे जिस समय हम लोग वहां पहुंचे इन श्रेणियों में कोई फर्क लग भी नहीं रहा था... सारा पंडाल ठसाठस भरा हुआ था..मोदी तो वहां एक घंटा रूकेंगे ..हम लोग आधे घंटे में ही वापिस हो लिए..
इस रामलीला मैदान के बाहर इस तरह के बीसियों बोर्ड लग चुके हैं ..और दर्जनों तैयार हो रहे थे ..
फिर वही बीमारी ....किधर की बात किधर ले गया....बातें हो रही थीं आदमियों की श्रेणीयों की ...जिस से मैं इत्तेफ़ाक नहीं रखता बिल्कुल...कभी रखूंगा भी नहीं .... अब मेरे जैसे आदमी को पंजाब में किसी आयोजन के लिए कल जालंधर से फोन आया कि डा. साहब, आप को चीफ़ गेस्ट के तौर पर बुलाना चाहते हैं....पहले तो मेरी हंसी छूटी खूब...फिर मैंने उस मित्र को कहा कि यार, इतनी इज़्जत की आदत नहीं है, न ही कभी तमन्ना है...चुपचाप आखिरी कतार के कोने में किसी समारोह का आनंद लेना का अपना ही लुत्फ है ....खूब हंसे हम लोग...मैंने उस से माफ़ी मांग ली....फिर बेटे के साथ भी यह बात शेयर कर के बहुत मज़ा आया कि तेरे बापू को चीफ-गेस्ट के तौर पर बुलाना चाह रहे थे ..

वापिस इंस्पेक्शन वाले तेवरों पर लौटते हैं.....मेरी आदत है मैं अखबार की तस्वीरें बहुत अच्छे से देखता हूं ...और पिछले पंद्रह वर्षों के दौरान मैंने जितनी भी इंस्पेक्शन की तस्वीरें अखबारों आदि में देखी हैं उन से कुछ निष्कर्ष निकाले हैं ...
  • इंस्पेक्शन करने वाले का एक हाथ अपनी पतलून की जेब में घुसा होना ज़रूरी है ..
  • अगर इंस्पेक्शन करने वाले कोई बहुत ही बड़ा अादमी है तो उसके दोनों हाथों भी पतलून की जेब में घुसे हो सकते हैं..
  • इंस्पेक्शन करने वाले से कहीं ज़्यादा जानकारी रखने वाले लोग उस के सामने बिल्कुल स्कूली बच्चों की तरह दुबके हुए इंस्पेक्टर साहब के रफू-चक्कर होने का इंतज़ार करते हैं..
  • और हां, इंस्पेक्शन करने वाले का सिर अकसर कम से कम नब्बे डिग्री तक देखा गया है...और कुछ और रौब वाले तो इस की डिग्री को बढ़ा कर एक सौ तक कर सकते हैं.....डर लगता है उस समय इंस्पेक्शन करवाने वालों को कहीं धौन च वल न पै जावे (कहीं गर्दन में बल ही न पड़ जाएं!)
  • इंस्पेक्शन को दौरान अकसर बड़े साहिबों को कोई बीस तीस साल पुराना बंदा अचानक याद आ जाता है जो अभी भी घास ही काट रहा होता है ...उस से मिल कल कुछ साहिब लोग अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में पड़ जाते हैं....कृष्ण-सुदामा मिलन तो नहीं कहूंगा...लेकिन राजा भोज और गंगू तेली की कहानी याद आ जाती होगी ...
  • इस के अलावा भी कुछ इंडिकेटर्स हैं जिन से आप फोटो का कैप्शन पढ़े बिना यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कौन इंस्पेक्शन कर रहा है और किस की इंस्पेक्शन हो रही है ...जैसे आंखों पर काला चश्मा, सिर पर कोई टोपी-वोपी..
  • और एक बात याद आ गई जाते जाते ...एक तेवर इस तरह का भी रखना ज़रूरी है ..मेरे पी.जी टीचर की तरह कि तुम्हें कुछ भी आता जाता नहीं, इस विषय से संबंधित जितना ज्ञान है मेरे पास है ...और चाय नाश्ते के दौरान काजू-कतली की एक टुकड़ी तोड़ कर उठाने में भी कुछ अलग तेवर नज़र आना चाहिए..
बस, मैं तो इनती ही समझ पाया इन तेवरों के बारे में ...अखबारों की तस्वीरें देख देख कर...अगर आप भी इस में कुछ जोड़ना चाहें तो आप का स्वागत् है!

मेरे लिए एक इंस्पेक्शन अविस्मरणीय है....मैंने नईं नईं सर्विस ज्वाईन की थी...कुछ दिन ही हुए थे....हमारे एक उच्च अधिकारी आए थे इंस्पेक्शन पर ....एक एक बात उन्होंने मेरे से पूछी ...मुझे कहा कि तुम एमडीएस हो, बड़ा स्कोप है तुम्हारे लिए...क्या तुमने हैपेटाइटिस बी का इंजेक्शन लगवाया हुआ है?....नहीं, मैंने जवाब दिया...तो उन्होंने अपने नोट्स में यह लिखवाया कि डैंटल सर्जन को हैपेटाइटिस बी से इम्यूमाईज़ड होना चाहिए....तब नया नया ही आया था यह टीका ...1991 की बात है .. मैंने कहा कि मुझे इस की सेफ्टी के बारे में कुछ संदेह है ...तब उन्होंने मुझे यह बताया कि अब जैनेटिकली इंजिनियर्ड तकनीक से आने वाले टीक पूर्णतया सुरक्षित हैं....मैंने अगले ही दिन उस टीके की पहली खुराक लगवा ली...एक सार्थक इंस्पेक्शन की यह बात आज याद आ गई लिखते लिखते तो यहां दर्ज कर दी....और हां, एक इंस्पेक्शन और है जिस की तस्वीरें देख कर मैं बहुत खुश हो जाता हूं....जी हां, अपने मेट्रो-मेन श्रीधरन जी ....खुशकिस्मत हैं वे लोग जो इन से सुझाव पाते होंगे इंस्पेक्शन के दौरान... such a great and grounded personality....real heroes of Today's India!

वरना आज कल भी जो हो रहा है बिल्कुल ठीक है....प्रतीकों और संकेतों का ज़माना है तो सब कुछ उस के अनुसार ही तो चलेगा...

अभी गीत की बारी है ...राम चंद्र जी की बात चलती है ..रामलीला की चर्चा होती है तो मुझे कोई चौपाईयां तो याद नहीं है, बस मुझे तो यह कथा ही बार बार सुनने की इच्छा होती है ....


रविवार, 9 अक्तूबर 2016

आज का साईकिल टूर....रैली के रास्ते से


आज बहुत दिनों बाद साईकिल टूर पर निकला...पिछले दिनों उमस ही इतनी थी ....घर से निकलते ही कुछ लोग बड़े अनुशासन में सड़क के एक तरफ़ पर चलते हुए श्री काशीनाथ स्मारक की तरफ़ उन की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में रखे एक आयोजन की तरफ़ चले जा रहे थे...
बंगला बाज़ार से रैली स्थल की तरफ़ प्रस्थान करते लोग..

बिजली पासी किले का वह द्वार जो जेल रोड़ (बंगला बाज़ार) की तरफ़ खुलता है ..

खाने पीने की चीज़ों का धंधा ज़ोरों पर था..सुबह के नाश्ते का जुगाड़ 
बिजली पासी किले ग्राउंड  एक द्वार  
किला चौराहे से आगे से भी लोग आ रहे थे..शायद रमाबाई स्मारक से आ रहे होंगे 

सभी सड़कें रैली स्थल की ओर जाती दिखीं..

बिजली पासी किले स्मारक का मेन गेट ..यहां खानपान की व्यवस्था है ...पिछले दो तीन दिनों से यहां टैंट लग रहे थे..


फकड़ी पुल पर यह अपना धंधा चमकाता दिखा...गठड़ी वाले को इस की बीन रोक नहीं पाई लगता है ...

अंबेडकर चौराहा (अवध चौराहा) से श्री काशीनाथ स्मारक की तरफ़ जाते लोग ..एक ने सपेरे का खेल देखने की इच्छा ज़ाहिर की तो उस के साथियों ने उसे जो बात कही, वह यहां लिखने लायक नहीं है ...समझने वाले समझ गये, मुझे पता है ...


स्मारक स्थल के बाहर पानी के टैंकर की व्यवस्था ..

यह उस रैली स्थल का मुख्य प्रवेश-द्वार ...ज़ूम कर के देखिए... 

किताबें बिक रही थीं, फ्रूट चाट , लईया-चना, कमीज़ों की रेहड़ीयां का काम अच्छा चल रहा था..





ये ऊपर खाली सड़कें शायद इसलिए खाली हैं क्योंकि ये लोगों के आने का मुख्य रुट नहीं था..
घर में भी अकेले ..बाहर भी अकेले ....कुछ बुज़ुर्ग...
लेकिन विश्व बुज़ुर्ग दिवस तो हम लोगों ने सेलीब्रेट कर लिया है न पहले ही ...

भाई, तुम कहां?...यह मेरा सहायक सुरेश है ...इस की ड्यूटी स्टेशन पर लगी थी ...
बाहर गांव से आने वाले लोगों के एमरजैंसी इलाज वाली टीम के एक हिस्से के रूप में
स्मारक के अंदर जाने के लिए ऊंची दीवार फांदने का उत्साह भी देखने लायक था..
एक अधेड़ औरत भी इस में शामिल थी...
बंगला पुल के पास भीड़ काफी थी, लेकिन बड़ी सुव्यवस्थित और शांत ..
यह कार्यकर्ता प्रचार गीत के ऊपर थिरक कर लोगों को एंटरटेन भी कर रहा था..
 इस को देखते ही मुझे यह गीत याद आ गया...मेरी तो उधर दस मिनट रुकने की इच्छा बड़ी प्रबल थी, लेकिन मेरे सहायक ने तुरंत कह दिया ...चलिए, सर...चलते हैं!


बंगला पुल 




बंगला बाज़ार से अभी भी लोग निरंतर रैली स्थल की तरफ़ प्रस्थान कर रहे थे ..
इतना टूर लगाने के बाद मुझे यही लगा जैसे मैंने परम आदरणीय बाबासाहेब भीम राव अंबेडकर की याद में भी स्मारक रूप में स्थापित कुछ मंदिरों की परिक्रमा कर ली सुबह सुबह ...