मंगलवार, 10 मई 2016

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है!

मैं अकसर लोगों से कहने लगा हूं कि सुबह और शाम अगर हो सके तो घर से बाहर खुली फ़िज़ाओं के साथ रहना सीख लीजिए...जी हां, अगर हो सके तभी ...वरना कुछ कुछ मजबूरियां होती हैं कुछ लोगों की काम-धंधों की ..लेकिन च्वाईस उन्हीं को करनी है कि वे किसी कितनी तरजीह देते हैं...इस का कोई नुस्खा नहीं हो सकता...मुझे ऐसा लगता है ..





आज जब मैं सुबह भ्रमण कर रहा था तो अचानक ध्यान आया कि फूलों की तो तस्वीरें सभी खींचते हैं...वे हमेशा लाइम-लाइट में रहते हैं...आज पत्तों की तरफ़ भी थोड़ा देख लिया जाए...इतनी विविधता, विशिष्ठता, सब कुछ इतना नैसर्गिक...मुझे नहीं पता इन में से कुछ पेड़ों के नाम क्या हैं...बस इतना जानता हूं कि ये हर राही को अपनी अनुपम सुंदरता से खुश कर देते हैं...जैसे की जीने की कला सिखा रहे हों!





आज सुबह सत्संग में जिस तरह के बढ़ियाा खस्ता-मटर खाए...इतने लज़ीज़ मैंने अाज तक पिछले तीन सालों में लखनऊ प्रवास के दौरान नहीं खाये....मैंने सोचा कि उसे भी लगे हाथ अपने ब्लॉग पर दर्ज़ कर ही दूं...


 मैं मोबाइल से फोटो ट्रांसफर कर रहा था तो मुझे मेरे इस दोस्त की तस्वीर भी दिख गई..कल रात सोते समय खींची..अब टीवी देखना सिरदर्दी जैसा होने लगा है, सोच रहा हूं कि शाम को ही इसे ऑन कर लिया करूं...
यह भी मेरा पक्का दोस्त है..
एक टीवी शो अकसर देखा करता था ...लगता था कि ठीक बातें होती हैं वहां..लेकिन कल देखते देखते अचानक ध्यान आया कि लगता है यह शो भी बिक गया दिखे है, शायद बिकने की कगार पर है...या फिर डर गया है ...पता नहीं ..ठीक है यार वंचितों की, हाशिये पर रहने वालों की बात होनी चाहिए....इस में दो राय नहीं हैं....बात बात पर  "स्वर्णों" पर दोषारोपण, बात बात पर उन में दोष निकालने की कोशिश....अजीब सा लगने लगा है ...बहुत से लोगों से मिलता हूं रोज़ाना...यकीन मानिए अब कुछ कुछ स्वर्ण जाति वाले भी नाम के ही स्वर्ण रह गये हैं और असल में वे भी हाशिये पर जीने वाले ही लगने लगे हैं...मैं किसी का पक्ष नहीं ले रहा हूं , लेकिन हर बात में संतुलन रखना ज़रूरी है....पंद्रह सालों बाद मैं इस तरह की बात आज पहली बार लिख रहा हूं...वंचितों की बात होनी चाहिए, बेशक, लेिकन दूसरे बहुत से लोग भी तो वंचित ही हैं, नाम के लिए वे so-called स्वर्ण हैं, उन का क्या?





मैं भी किस चर्चा में पड़ गया...जिस में अकसर मैं पड़ता नहीं हूं...लेिकन कभी कभी मन की बात बाहर आ ही जाती है...लेकिन एक बात अच्छी हुई ..स्वर्ण लिखते लिखते कल सुबह टहलते हुए एक सज्जन दिख गये जिन्होंने गल में कम से कम २०-३० तोले की सोने की चैन डाली हुई थी...अजीब सा लगा आज कल के माहौल में यू.पी ...मुझे ध्यान आया कि शायद असली हो या शायद नकली हो ..लेकिन जिस तरह वह दबंग अपने दोनों दोस्तों के आगे बिल्कुल छुट्टे सांड की तरह चल रहा था ...बाजू अजीब तरीके से हिला हिला के ...एक बार तो लगा कि यह ज़रूर शुद्ध सोने की चैन ही डाले हुए हैं....लेिकन कुछ पता नहीं चलता आजकल...असली-नकली में.....सारांश यह है कि इस गर्मी में, इस माहौल में यूपी में ...चाहे चैन नकली थी या असली थी, वह तो पता नहीं, लेिकन वह बंदा परले दर्जे का बेवकूफ़ ज़रूर था।


एक बात तो आपसे शेयर करना भूल ही गया...दो तीन दिन से टाटास्काई मिनिप्लेक्स पर ए-वेडनेसडे नाम की फिल्म आ रही थी...इसे मैंने एक डॉयलाग के लिए अभी तक लगभग बीस बार तो देख लिया होगा...एक आम आदमी के प्रतिशोध की कहानी है यह...मैंने पांच छः बार इस डॉयलाग को अपने मोबाइल में रिकार्ड करना चाहा...लेकिन बीच बीच में कैमरा धोखा दे जाता ...हार कर परसों आडियो ही रिकार्ड की इस डॉयलाग की ..लेकिन उस की क्वालिटी से मैं खुश नहीं था...हार कर आज सुबह यू-ट्यूब पर इस डॉयलाग को ढूंढ ही लिया....आप भी सुनिएगा...कितनी मेहनत करते हैं ये लोग भी ...इतने इतने लंबे डॉयलाग और इतने फ्लालैस तरीके से बोलना....इन के चेहरों की भाव-भंगिमा देखते बनती है...महान कलाकार....महान आर्टिस्ट....चुपचाप अपनी साधना में लगे रहते हैं....इन के फन को हमारा सलाम....

आज पत्तों की बातें हो रही हैं तो पत्तों वाला ही कोई गीत सुनना चाहिए...हो जाए फिर!