गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

मैं आज भी फैंके हुए पैसे नहीं उठाता...


हिंदोस्तानी सिनेमा में देशवासियों की संवेदनाओं को जगाने का बहुत बड़ा काम अंजाम दिया है .... अभी भी लोग लगे ही हुए हैं.. आज भी मैंने जब बंबई के एक उपनगरीय स्टेशन पर इस तरह से बूट पालिश होते देखे तो मुझे दीवार फिल्म का वह सीन याद आ गया....जो हम लोगों के ज़ेहन में एकदम फिट हो चुका है ...कि मैं आज भी फैंके हुए पैसे नहीं उठाता ..

अपने अपने विचार हैं...अपना ही नज़रिया होता है ... वैसे तो लोगों का धंधा है .. लेकिन मैं तो जिसे भी इस तरह से बूट पालिश करवाते देखता हूं ...तो मेरे मन में तुरंत दीवार फिल्म कौंध पड़ती है ...और मैं मन ही मन उस बंदे को कह देता हूं कि अमां, यह क्या, दस रूपये खर्च कर के ...आप तो अपनी औकात ही भूल गये!


बूट पालिश करने वाले को लगता हो या नहीं....विभिन्न कारणों के रहते ...लेकिन मुझे तो यह भी मानवीय अधिकारों का हनन जान पड़ता है .. मुझे इस से कुछ मतलब नहीं कि बूट पालिश करने वाला या करवाने वाला किस जाति का है ... मैं इन सब बातों में बिल्कुल ध्यान नहीं देता ... यह मेरा विषय नहीं है..मुझे तो बस इस बात से आपत्ति है कि जिस अंदाज़ में बूट पालिश करवाने वाला बडी़ ठसक के साथ अपना जूता उस पालिश वाले की पेटी पर टिकाता है ....और हां, अगर सामने बैठा बंदा भी कोई दीवार फिल्म के बाल कलाकार जैसा हो तो अलग बात है! 

समाज में कुछ कुछ तौर तरीके बस ऐसे ही चलते रहते हैं...लेकिन फिर भी ... थोड़ा सा ध्यान रखिएगा...अगली बार...अकसर मोची के पास एक स्टूल रखा होता है ...अगर ऐसा कोई आप्शन है तो उस पर बैठ कर इत्मीनान से चमकवा लीजिए जूतों को..

मैंने भी शायद कभी कईं साल पहले एक बार इस तरह से शूज़ पालिश करवाए थे ....मुझे तो इतना बुरा लगा था ...बुरा क्या, अपने आप पर भी शर्म सी आई थी....कहने की बात नहीं है, कोई बड़प्पन वड़प्पन भी नहीं, बस ऐसे ही शेयर कर रहा हूं कि हम लोग तो वह हैं....मेरे बेटे भी ...जब किसी दुकान पर जूता लेने जाते हैं...और अगर नया जूता पहन कर ही बाहर आना है तो पुराने जूते को सेल्समेन को बिल्कुल भी हाथ नहीं लगाने देते .... स्वयं उसे थैली में डालते हैं... और उठाते हैं....मुझे यह देख कर अच्छा लगता है ....

Respect people's dignity!

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