सोमवार, 7 नवंबर 2016

मौन का महत्व

हिंदुस्तान अखबार के संपादकीय पन्ने पर हर रोज़ बहुत सी काम की बातें होती हैं...किसी विषय पर संपादकीय लेख तो होता ही है (आज का विषय था...बिना दवा के राहत), साथ में एक व्यंग्य-कटाक्ष (यह भी बहुत ज़रूरी है लोगों में प्राण फूंकने के लिए), किसी सामाजिक मुद्दे पर किसी विशेषज्ञ की राय, कोई अध्यात्मिक बात ..बहुत कुछ होता है...लेकिन अपने ही बनाए कारणों की वजह से मैं हमेशा इस पन्ने का भी कुछ अंश ही पढ़ पाता हूं...सोचता हूं शाम में या रात में देखूंगा..लेकिन वो शाम कभी नहीं आती!

एक कॉलम है इस संपादकीय पन्ने पर मनसा वाचा कर्मणा...जिस में अमृत साधना नाम से किसी का एक लेख हफ्ते में एक बार ज़रूर छपता है ...इसे मैं ज़रूर पढ़ता हूं...मुझे विश्वास है कि अमृत साधना जी ओशो जी की अनुयायी हैं...याद है बहुत बार ओशोटाइम्स में इन के संपादकीय पढ़ते रहते थे...जीवन की सच्चाई होती है इन की लेखनी में ...

ओशो साहित्य तो वैसे ही अनुपम है ...मुझे याद है कुछ बरस पहले मैंने ओशो जी का एक लेख पढ़ा था ...जिस का शीर्षक ही था ...Comparison is a disease! यानि तुलना करना एक बीमारी जैसा है ...वह लेख मेरे मन में घर कर गया था...लेकिन फिर भी हम कब सुधरते हैं..लेख अच्छा लगा तो लगा, लेकिन हम तुलना करने से कभी बाज आए ही नहीं शायद.....नहीं, कोई शायद नहीं, यकीनन लिख कर अपना मन हल्का किए लेता हूं...जो है सो है।

हां तो मैं अमृत साधना जी के साप्ताहिक लेख की बात कर रहा था ...जो लेख आज उन का छपा है उस का शीर्षक है ...मौन का महत्व...सुबह सुबह मुझे और भी बहुत से काम तो थे ही, लेकिन मुझे लगा कि बजाए इस लेख की एक फोटो खींच के वाटसएप ग्रुपों पर देखे-अनदेखे, जाने-अनजाने, अपने-बेगाने लोगों के साथ शेयर करने के इसे अपने ब्लॉग पर संभाल के रख लेता हूं...

बहुत से मन को छू लेने वाले पाठ हम लोग स्कूल के दिनों में किताब से नकल कर कलम से अपनी नोटबुक में भी तो लिख लिया करते थे, यही काम अभी कर रहा हूं...

"हाल ही में विख्यात गायक पंडित राजन मिश्र ओशो रिजॉर्ट आए हुए थे। बातचीत में उन्होंने कहा, आजकल गायक बड़ी तैयारी के साथ गाते हैं, संगीत के नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, लेकिन उनके संगीत में मौन नहीं होता। यह दिल में नहीं उतरता, क्योंकि वह उनके दिमाग से निकलता है। यह बात गौर करने लायक है।  
वाकई आज की जिंदगी में हर तरफ़ मौन का महत्व खो गया है। कोई भी मिलता है , तो हम फौरन मौसम की चर्चा शुरू कर देते हैं, कुछ भी बात शुरू कर देते हैं। वह सिर्फ बहाना होता है। असल में, चुप रहना इतना कठिन है कि हम किसी भी बहाने से बोलना शुरू कर देते हैं। दो लोग मिलें और चुप बैठे हों, यह अजीब लगता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि लोग एक-दूसरे से मिलें, हाथ मिलाएं, मुस्कराएं और सिर्फ साथ बैठें? क्या हम दूसरों के साथ सिर्फ शब्दों से जु़ड़े हैं? आज कल लोग चुप रहने की कला भूल गए हैं। फ्रायड ने अपने जीवन भर के अनुभवों के बाद लिखा है कि पहले तो मैं सोचता था कि हम बात करते हैं कुछ कहने के लिए, लेकिन मेरा अनुभव यह है कि हम बात करते हैं कुछ छिपाने के लिए।  
ओशो का सुझाव है , एक आदमी के पास कुछ देर मौन होकर बैठ जाएं, तो इस आदमी को जितना आप जान पाएंगे, उतना वर्ष भर उससे बात करने से भी न जान सकेंगे। बातचीत में आप उसकी आंखों को नहीं देख पाएंगे, उसके शब्दों में ही अटक जाएंगे। उसकी भाव-भंगिमा, उसके हृदय की वास्तविकता को महसूस न कर पाएंगे। आदमी शब्दों के परे बहुत कुछ होता है। शब्दों का लेन-देन तो व्यक्तित्व का सिर्फ दो प्रतिशत हिस्सा होता है, बाकी पूरा वार्तालाप तो निःशब्द तरंगों से, भावों से होता है। यही वास्तविक मिलना है। आजकल समाज में जो मिलना है, वह मिलने की औपचारिकता है। इसीलिए भीड़ में भी आदमी अकेला महसूस करता है।" 

अमृत साधना 
(साभार..हिन्दुस्तान.. ०७ नवंबर, २०१६) 



 हां, तो अमृत साधना जी की बात तो हम सब ने पढ़ ली, लेकिन हम उस पर गौर कब करते हैं..बस सुनी, अच्छी लगी , बात आई गई हो गई ...लेकिन कुछ बातें हमेशा अपने ध्यान में रखने लायक होती हैं...और एक बात यह भी कि अकसर जब बोलने की ज़रूरत न होने पर भी हम बोलते हैं तो बकवास ही करते हैं, निंदा करते हैं, केजरीवाल, रागा, नमो ...किसी को भी विषय बना लेते हैं, बस अपनी फूहड़ता जगजाहिर करते रहते हैं....और वैसे भी एक सुंदर सी बात मैंने कही पढ़ी थी ....किसी व्यक्ति की मूर्खता पर तब तक ही संदेह किया जा सकता है जब तक वह मुंह नहीं खोलता....पता नहीं औरों के लिए यह बात कितनी सच है, लेकिन मुझे लगता है कि यह मेरे लिए ही लिखी गई है..

मैं सोच रहा था कि हम लोग मिलने पर ही नहीं, सोशल मीडिया पर भी तो बिल्कुल ऐसा ही कर रहे हैं आजकल, बिना वजह भी हर समय बक-बक करते रहते हैं...मैं भी यही सब करता हूं लेकिन पिछले कुछ दिनों से इस पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहा हूं...एक स्टेट्स आप बीसवीं बार पढ़ रहे हैं लेकिन क्योंकि किसी ऐसे बंदे ने उसे इक्कीसवीं बार शेयर किया है...जिसे आपने खुश करना है...मन से उसे कोस रहे हैं (कम से कम!!) लेकिन प्रशंसा करते हुए खिलखिला कर हंसने वाली स्माईली लगाने का ढोंग रच रहे हैं....यकीनन, सोशल मीडिया पर हम से बहुत से लोग ईर्ष्या करते हैं और हमारी छाती की जलन का भी यही कारण है ...जितनी सोशल-इंजीनियरिंग आप सोशल मीडिया से सीख सकते हैं, उतनी तो आप किसी विश्वविद्यालय में भी नहीं पढ़ सकते ...बिल्कुल सच कह रहा हूं....इस के बारे में लिखेंगे तो बात लंबी हो जायेगी...फिर कभी ....

अभी तो बस मेरी पसंद का लगे रहो मुन्नाभाई का एक सुपर-डुपर डॉयलॉग सुन कर आज दिन सोमवार की सुस्ताई हुई सुबह में जोश भर लीजिए... मेरे तो आज सुबह करने वाले बहुत से काम इस पोस्ट को लिखने के चक्कर में एक बार फिर से टल गये..लगे रहो मुन्नाभाई का यह डॉयलाग मेरे दिल के बहुत करीब है ....मैं भी ऐसी ही नौकरी करना चाहता था जिस में मैं सुबह सुबह लोगों से मज़ेदार बातें करूं....चलिए, मैं न सही ....ईश्वरीय अनुकंपा से अब बेटा यह सब काम करता है, खुशी होती है कि वह वही काम करता है जिस में उसे खुशी मिलती है ...आज के दौर का नया कंटैंट है, नईं बातें हैं....कहता है कि वह किसी थके-मांदे उदास चेहरे पर खुशी लाने का कारण बनना पसंद करता है.... God bless him always!

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’घबराएँ नहीं, बंद नोटों की चाबुक आपके लिए नहीं - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  2. bahut achchhi baat kahi aapne sach me duniya aur khud ke shor se bhare hue hai ham ..moun ka mahtv bhool gaye ...

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  3. Very great post. I simply stumbled upon your blog and wanted to say that I have really enjoyed browsing your weblog posts. After all I’ll be subscribing on your feed and I am hoping you write again very soon!

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