सोमवार, 11 अप्रैल 2016

इस गुस्से का क्या करें!

बहुत अरसे बाद मुझे कल रविवार के दिन पांच छः हिंदी इंगलिश के अखबार पढ़ने को मिले..हर रविवार के दिन इतने मिलते तो हैं लेकिन अकसर पढ़ने का समय नहीं होता...

इन सभी अखबारों में एक खबर ने बहुत उद्वेलित किया..एक 92 साल के बुज़ुर्ग ने केरल में अपनी ७५ साल की पत्नी और ५५ साल के बेटे को गुस्से में आकर मार दिया...ब्लॉग में सब कुछ सच लिख देना चाहिए...पहला रिएक्शन तो मेरा शीर्षक पढ़ने के बाद यही था कि न चाहते हुए भी हंसी आ गई...यह कोई हंसने वाली बात नहीं थी जानता हूं..लेकिन यह बेवकूफी हुई...यह भी ब्लॉग पर दर्ज हो ही जाए तो ठीक है।

उस खबर को आगे पढ़ते हुए मन दुःखी हुआ..यह बुज़ुर्ग पेन्शन से अपने घर का गुज़ारा किया करता था..२० हज़ार पेन्शन थी..लेकिन इन की बिजली का बिल चार हज़ार के करीब आने लगा था...बुज़ुर्ग परेशान थे इसी चक्कर में और अखबार में िलखा है कि यह अपनी पत्नी और बेटे को कहा करते थे कि वे जिस रूम में सोते हैं वहां का ए.सी कम चलाया करें...उस दिन सुबह भी जब यह उन के कमरे में गये तो वे सो रहे थे..ए सी चल रहा था, इन्होंने एक लोहे की रॉड उठाई और एक ही झटके में अपनी बीवी और बेटे का काम तमाम कर दिया..फिर इन्होंने शोर मचाया और अपने पड़ोसियों को बुलाया .. लेिकन तब तक देर हो चुकी थी..

एक बात और लिखी थी पेपर में कि इन्होंने भी फंदा लगा कर अपनी जान लेने की कोशिश की लेकिन यह ऐसा इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि इतनी बड़ी उम्र की वजह से यह स्टूल पर चढ़ ही नहीं पाए।

मैं दंत चिकित्सक हूं ..फिर भी कुछ महीनों के बाद मेरे पास कोई ना कोई मरीज़ आ जाता है जो पूछता है कि गुस्से को कम करने की कोई दवाई है।

उस दिन भी एक २० साल के करीब कोई लड़की अपने दांत का इलाज करवाने के बाद जाते समय कहने लगी कि डाक्टर साहब, मेरी मां को नींद की गोलियां चाहिएं...आपने पिछली बार भी नहीं दी थीं...मुझे अजीब सा लगा, मैं उस की मां को नहीं जानता था, न ही ऐसा कुछ याद आ रहा था...मैंने कहा कि मैं नींद की गोलियां नहीं लिखता और ये गोलियां अपने आप लेनी भी नहीं चाहिए..

फिर यह लड़की कहने लगी कि मुझे अपने लिए भी ये गोलियां चाहिएं क्योंकि मुझे नींद ही नहीं आती ...मुझे हैरानगी हुई ...वैसे भी यह बच्ची डिप्रेस सी लग रही थी...कहने लगी कि चलिए कोई ऐसी दवाई ही लिख दीजिए जिस से गुस्सा कम हो जाए...मुझे गुस्सा बहुत आता है ...मैंने उसे कहा .. इसमें दवा कुछ नहीं करेगी, शांत रहने की सलाह देकर मैंने उसे साथ के कमरे में सामान्य चिकित्सक के पास भेज दिया..हां, एक बात उसने यह भी कही कि गुस्सा इतना भी तो नहीं आए कि मैं घर की चीज़ें ही तोड़ने लगूं...

यह इस बच्ची की बात नहीं है ..हम अकसर देखते हैं कि लोगों में गुस्सा बहुत ज़्यादा बढ़ गया है ..रोज़ाना अखबार गुस्से के कारनामों से भरा पड़ा होता है ...हमें गुस्सा किसी और से होता है निकलता किसी और पर है...एक तरह से फ्रस्ट्रेशन निकालने वाली बात...बात बात पर तुनकमजाजी बहुत बुरी बात है ...सामने वाले के लिए तो है ही अपनी जान के लिए भी खऱाब ही है ..एक मिनट में हम हांफने लगते हैं...सोचा जाए तो ऐसी कौन सी आग लगी जा रही है...

जितना मैं मैडीकल विज्ञान को जान पाया हूं ..वह यही है कि गुस्से-वुस्से का इलाज करना किसी भी चिकित्सा पद्धति के वश की बात है ही नहीं और कभी होगी भी नहीं...यह बात मैं पक्के यकीन से कह सकता हूं और इस पर चर्चा करने के लिए तैयार हूं...वैसे तो बहस करता नहीं, चुप हो जाता हूं बहुत ही जगहों पर, हंस कर बात टालने की कोशिश करता हूं ....क्योंकि मैं यही सोचता हूं कि बहस जीत कर भी मैं क्या हासिल कर लूंगा!

५०और ३ त्रेपन साल की उम्र भी कम नहीं होती...यहां पहुंचने तक कोई भी बंदा दुनिया देख लेता है ..न चाहते हुए भी कुछ कुछ सीख ले ही लेता है ..मैंने जो सीखा इस गुस्से को काबू करने के लिए ..इतने सालों में यह है आज शेयर करना चाहता हूं...

युवा लोगों की बात कर लें पहले...

युवा लोगों में तरह तरह के स्ट्रेस हैं...Relationships, सर्विस से जुड़ा तनाव, खाने-पीने का तनाव, ड्रग्स, देर रात चलने वाली पार्टियां, हर वक्त कनेक्टेड रहने की फिराक, अपने आप को बेहतर दिखाने की होड़, और बैंकों के बड़े बड़े कर्ज...इतने सब के बावजूद भी अगर कोई गुस्सा को दूर रख पाए तो वह सच में बहादुर इंसान है। इन सब के बारे में क्या लिखें, सब कुछ लोग जानते हैं...बस, युवाओं की दुनिया अलग ही है आज कल...पिछले दिनों प्रत्यूषा बैनर्जी ने अपनी जान ले ली, इतना प्रतिभाशाली जीवन एक ही झटके में यह गया, वो गया...हर रोज़ इस तरह की हस्तियों के नाम आते रहते हैं और पता नहीं कितने तो गुमनाम ही चल बसते हैं...कोई नाम भी नहीं लेता!

जीवन में अध्यात्म का स्थान....

मैं नहीं कहता कि हम लोग सत्संगों में जा कर संत बन जाते हैं....मैं अपने अनुभव से कहता हूं...लेिकन फिर भी अच्छी बातें बार बार सुनते हैं तो कुछ तो असर होने ही लगता है ..जिस भी सत्संग में जाना आप को अच्छा लगे, वहां जाइए, नियमित जाइए, छोटे छोटे बच्चों को भी लेकर जाइए..क्योंकि सत्संग वाला सिलेबस किसी स्कूल में कवर नहीं होता...न ही कभी होगा...

हर सत्संग प्यार, मोहब्बत, आपसी मिलवर्तन की बातें करता है...जहां भी मन लगे प्लीज़ जाइए...घर से बाहर निकलिए तो सही ....

अच्छा साहित्य पढ़िए...प्रेरणात्मक साहित्य ...एक बात और भी है कि अगर बच्चे और युवा नियमित सत्संग में जाएंगे तो वे स्वतः ही अश्लील साहित्य, अश्लील साईट्स से दूर रहेंगे...यह भी बिल्कुल पक्की बात है ...वरना आज कल छोटे छोटे बच्चों के पास नेट और मोबाइल की सुविधा इतनी बेरोकटोक है कि वे आग का खेल खेलने से बाज़ नहीं आते...
अध्यात्म हमारी बहुत बड़ी उम्मीद है ...और हमेशा से है और युगों युगों तक रहेगी....सत्संग में जाकर बच्चों में आत्मविश्वास पैदा होता है, किसी से बात करने का सलीके जान लेते हैं, सेवाभाव, समर्पण जैसे गुण स्वतः प्रवेश करने लगते हैं..
मैं जिस भी मरीज़ को देखता हूं कि उस को बहुत सी तकलीफ़ें हैं और कुछ कुछ काल्पनिक भी हैं ..या जो मुझे जीवन से निराश हताश हुआ दिखता है तो मैं उसे किसी सत्संग से साथ जुड़ने की सलाह ज़रूर दे देता हूं ...मुझे इस नुस्खे पर अपने आप से भी ज़्यादा भरोसा है ...अटूट विश्वास है...प्रार्थना में, अरदास में...

एक सुंदर बात याद आ गई...
PRAYER NECESSARILY DOESN'T CHANGES life situations FOR YOU, IT DEFINITELY CHANGES YOU FOR those situations!
कितना लिखूं सत्संग की महिमा पर ...जितना लिखूं कम है...बस, बच्चों को, युवाओं को आध्यात्म से साथ जोड दीजिए...

गुस्से के लिए खान-पान भी दोषी...
अकसर हम लोग पढ़ते ही रहते हैं कि बच्चे जिस तरह से जंक-फूड-फास्ट फूड और प्रोसेसेड फूड के आदि हो चुके हैं ..इन में तरह तरह के कैमीकल्स होने की वजह से भी और वैसे भी पौष्टिकता न के बराबर होने की वजह से ये लोगों में गुस्सा भर देते हैं...ऐसा बहुत से रिसर्चज़ ने भी देखा है...लौट आइए अपने पुराने खान पान पर...

मांस-मछली छोड़ने पर विचार करिए... 
बहुत सी चीज़ें हैं जिन के बारे में इस देश में कहना लिखना ठीक नहीं लगता..फिर भी ...अपनी बात तो कर ही सकते हैं...मांस मछली हम ने १९९४  में आखिरी बार खाई थी, २२ साल हो गये हैं...इसे न खाने से बहुत अच्छा लगता है...लेिकन यह कोई हिदायत नहीं दी जा सकती...यह हमारी पर्सनल च्वाईस है ...हरेक की है .. लेकिन इसे छोड़ कर कभी ऐसा नहीं लगा कि शरीर का पोषण कम हो गया है ...बिल्कुल भी नहीं..वैसे भी मांस मछली हम किस क्वालिटी की खाते हैं ....हम सब जानते हैं....फैसला आप का अपना है।

मांस मछली और जंक फूड के बारे में कहते हैं कि यह सुपाच्य नहीं है ..विभिन्न कारणों की वजह से इन की वजह से भी हम बात बात पर उत्तेजित हो जाते हैं....हमारे पुरातन ग्रंथ भी तामसिक सात्विक खाने की बातें तो करते ही हैं...हम उन की भी कहां सुनते हैं!

 शारीरिक श्रम..
िकसी भी तरह का शारीरिक श्रम--कोई खेल कूद, साईकिल चलाना, टहलना...कुछ भी जो अच्छा लगे किया करिए रोज़ाना.... और एक बात, कोई न कोई हॉबी ज़रूर रखिए...कुछ भी बागबानी, पेंटिंग, लिखना-पढ़ना, समाज सेवा, नेचर-वॉक,.....कुछ भी जिसे कर के आप को अच्छा लगने लगे...उसे ज़रूर करिए...

ध्यान (मेडीटेशन) ज़रूर करिए...
मैंने शारीरिक श्रम की बात की, मेडीटेशन (ध्यान) की भी ट्रेनिंग लीजिए और इसे नियमित करिए...मैं बहुत सालों तक करता था...पिछले कईं सालों से सब कुछ छोड़ दिया...यह पोस्ट के माध्यम से मुझे अपने आप से भी यह कहने का मौका मिला कि मैं भी अपनी लाइफ को पटड़ी पर ले कर आऊं....सोच रहा हूं आज या कल से ..आज से ही फिर से मेडीटेशन शुरू करता हूं...I really used to feel elated after every Meditation session!...Just 15-20 minutes twice or thrice a day!

बातें शेयर करने की आदत डालिए...

जितनी बातें मन में कम से कम रखेंगे उतना ही बोझ हल्का होता जाएगा..मैं भी ब्लॉगिंग के माध्यम से यही तो करता हूं लेकिन बड़ी धूर्तता से बहुत कुछ छिपाए रखता हूं ...लेकिन इतना इत्मीनान है कि पाठकों के लिए जो काम की बात है, उसे पूरे खुलेपन से दर्ज कर देता हूं...

हां, बातें शेयर करने की बात से मैंने ब्लॉगिंग की बात तो कर दी , लेकिन जिन के ब्लॉग नहीं हैं वे क्या करें, वे अपने घर परिवार में, भाई बहन से अपने मन की बातें शेयर ज़रूर किया करें...कुछ बातें अपने टीचर्ज़ से भी शेयर की जा सकती हैं...यह बड़ा जरूरी है ... हमें कदम कदम पर मार्गदर्शन चाहिए, हम सब के सब अपने आप में अधूरे हैं....कड़ी से कड़ी मिल के ही कुछ बात बन सकती है ....

एक दिल का डाक्टर किसी को हिदायत दे रहा था...
दिल खोल लै यारां नाल, 
नहीं ते डाक्टर खोलन गे औज़ारा नाल...

ओह माई गॉड...आज तो पोस्ट कुछ ज्यादा ही प्रवचन स्टाईल में और हट के हो गई...लेकिन असल बात कहूं तो मेरा यही सिलेबस है ...मैंने चिकित्सा विज्ञान से कहीं ज्यादा अध्यात्म को पास से अनुभव किया है ...

इतनी भारी भरकम पोस्ट.....अब इसे बेलेंस कैसे करूं...  अभी करता हूं कोई हल्का-फुल्का जुगाड़ ...


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